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दिवाली क्यों मनाई जाती है? इसके पीछे अलगअलग कहानियां हैं, अलगअलग परंपराएं और दिवाली की संपूर्ण पूजा विधि, ऐसे करें दिवली पर लक्ष्मी पूजन की पूजा

भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या नगरी लौटे थे, तब उनकी प्रजा ने मकानों की सफाई की और दीप जलाकर उनका स्वागत किया। दूसरी कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध करके प्रजा को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई तो द्वारका की प्रजा ने दीपक जलाकर उनको धन्यवाद दिया
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2024-10-30 11:30:14

इसके पीछे अलग-अलग कहानियां हैं, अलग-अलग परंपराएं हैं। कहते हैं कि जब भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या नगरी लौटे थे, तब उनकी प्रजा ने मकानों की सफाई की और दीप जलाकर उनका स्वागत किया। दूसरी कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध करके प्रजा को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई तो द्वारका की प्रजा ने दीपक जलाकर उनको धन्यवाद दिया। एक और परंपरा के अनुसार सतयुग में जब समुद्र मंथन हुआ तो धन्वंतरि और देवी लक्ष्मी के प्रकट होने पर दीप जलाकर आनंद व्यक्त किया गया। जो भी कथा हो, ये बात निश्चित है कि दीपक आनंद प्रकट करने के लिए जलाए जाते हैं... खुशियां बांटने का काम करते हैं। भारतीय संस्कृति में दीपक को सत्य और ज्ञान का द्योतक माना जाता है, क्योंकि वो स्वयं जलता है, पर दूसरों को प्रकाश देता है। दीपक की इसी विशेषता के कारण धार्मिक पुस्तकों में उसे ब्रह्मा स्वरूप माना जाता है। ये भी कहा जाता है कि दीपदान से शारीरिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। जहां सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच सकता है, वहां दीपक का प्रकाश पहुंच जाता है। दीपक को सूर्य का भाग सूर्यांश संभवो दीपः कहा जाता है। धार्मिक पुस्तक स्कंद पुराण के अनुसार दीपक का जन्म यज्ञ से हुआ है। यज्ञ देवताओं और मनुष्य के मध्य संवाद साधने का माध्यम है। यज्ञ की अग्नि से जन्मे दीपक पूजा का महत्वपूर्ण भाग है। जब सूर्य का जन्म हुआ, तब उसने संपूर्ण दिवस संसार को अपने प्रकाश से आलोकित किया। जैसे- जैसे उसके अस्त होने का समय समीप आने लगा, उसे ये चिंता होने लगी कि अब क्या होगा? उसके अस्त होने के पश्चात दुनिया में अंधकार फैल जाएगा। कौन मानव के काम आएगा? कौन उन्हें रास्ता दिखाएगा? सहसा एक आवाज आई- आप चिंतित न हों। मैं हूं ना! मैं एक छोटा-सा दीपक हूं, पर प्रातःकाल तक अर्थात आपके उदय होने तक मैं अपने सामर्थ्यभर संसार को प्रकाश देने का प्रयत्न करूंगा। सूर्य ने संतोष की सांस ली और अस्त हो गया। दीपक का आरंभ कब हुआ? कहां हुआ? ये निश्चित रूप से कहना कठिन है। अनुमान है कि प्राचीन समय में जब मानव ने अग्नि की खोज की होगी, तभी दीपक अस्तित्व में आए होंगे। आरंभ में घास-फूस को बांधकर जलाया गया और प्रकाश प्राप्त किया गया। आग जल जाती थी तो जली हुई रखी जाती। मशाल के रूप में ये दीपक थे, जो प्रकाश देते थे। पत्थर के युग में मानव ने प्रथमतः खोखले पत्थरों को दीपक की भांति उपयोग में लाना आरंभ किया। वृक्षों की पतली नर्म छाल को रस्सी की भांति बंटकर बाती बनाई जाती। फिर मानव ने पत्थर और पत्थर की चट्टानों को खोदकर दीये बनाना आरंभ किया। गुफाओं में मूर्तियां एवं चित्र बनाने की प्रक्रिया में पत्थर के ये दीपक सहायक सिद्ध हुए। भारत में अजंता, एलोरा तथा अन्य स्थानों पर गुफाओं में कला के अद्वितीय प्रदर्शन में पत्थर के दीये काम आए। फ्रांस में विजेरे नदी के किनारे की गुफाओं में पत्थर के दीये प्राप्त हुए हैं। पत्थर के दीयों के पश्चात सीप और शंख अस्तित्व में आए। दीपक का आकार बदलता रहा। वृक्ष की छाल बत्ती बनाकर प्रकाश देने का काम करती रही। धीरे-धीरे मानव ने मिट्टी के दीपक बनाना सीख लिया। धीरे-धीरे जैतून, सरसों और शीशम का तेल उपयोग में लाया जाने लगा। सत्य तो ये है कि आज भी सर्वाधिक मिट्टी के दीपक ही प्रचलित हैं। दीपक की यात्रा की अगली मंजिल थी धातु की खोज। सोना-चांदी, तांबा-पीतल आदि धातुओं को पिघलाकर विभिन्न आकारों के दीपक बनाए जाने लगे। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े (6-7 फुट ऊंचे) दीपक तैयार किए जाने लगे। उन्हें संभालने के लिए पीतल की मूठ लगाई जाती थी। उस काल में बिजली नहीं थी। समृद्ध परिवारों में उपयोग किए जाने के लिए झाड़-फानूस तैयार हुए जिनमें एकसाथ कई-कई दीपक और मोमबत्तियां जलकर दिन के प्रकाश जैसा प्रकाश देते थे। धार्मिक स्थानों में भी फानूस लगाए जाते थे। सुंदर नक्काशी वाले दीपक मंदिरों की छत में लगाए जाते थे। द्वार पर हाथी और शेरों की आकृति वाले दीपक दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी देखने को मिल जाते हैं। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के दीयों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में रात्रि के समय जब घटोत्कच से युद्ध हुआ तो दुर्योधन ने सैनिकों को हाथों में जलते हुए दीपक रखने का निर्देश दिया था। मथुरा, पाटलीपुत्र (पटना), टेक्सिला (तक्षशिला, पाकिस्तान में), अवंतिका (उज्जैन) आदि में खुदाई के दौरान मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए थे। टेक्सिला के दीपक कलाकारी के उत्तम नमूने थे। उनमें विशेष बात ये थी कि दीपक का निचला भाग ठंडा रखने के लिए उनमें पानी भरने का स्थान होता था। हड़प्पा संस्कृति के दीपक बलोचिस्तान में मालनामी स्थान से प्राप्त हुए। वो मिट्टी से बने चौकोर दीपक थे। उनके चारों कोनों में बत्तियां रखने का स्थान था। मोहन जोदड़ो में पाए गए दीपक गोलाकार थे। वहां मार्ग के दोनों ओर लगाए जाने वाले दीपक भी प्राप्त हुए थे। इनके अतिरिक्त मंदिर में आरती के समय उपयोग में आने वाले पंचमुखी और सप्तमुखी दीपक भी प्रचलन में थे। पूजा के समय दीपक अर्चना दीप कहलाते थे। शयनकक्ष में निशि दीपक प्रयुक्त होते थे। बंदरगाहों में मार्ग दिखाने वाले आकाश दीप नाम से जाने जाते थे। पेड़ों पर लटकाए जाने वाले दीपकों का वृक्ष दीप नाम था। इनमें अनेक टहनियां होती थीं। प्रत्येक टहनी पर दीपक और ऊपर भाग में किसी देवी-देवता की मूर्ति (केवल सिर) होता था। घर के त्योहारों में आटे के दीपक काम में लाए जाते थे। दूसरों की भलाई के लिए काम में लाए जाने वाले नंदा दीप कहलाते थे। कल्हण की राज तरंगिणी में धनिकों के घरों में मोती-माणिक के दीपक मणिदीप इस्तेमाल किए जाते थे। सुंदर स्त्रियों के रूप में दीपांगना अथवा दीपलक्ष्मी, ऐश्वर्य को दर्शाते थे। भारत के विभिन्न राज्यों के दीपक अपनी अलग पहचान रखते हैं, जैसे व्याघ्र दीप (ओडिशा), राजलक्ष्मी दीप (बंगला), मयूर दीप (राजस्थान), कनक दीप (बिहार), नागदीप (महाराष्ट्र) बहुत प्रसिद्ध हैं। भारत में पुणे (महाराष्ट्र) का केलकर संग्रहालय और ग्वालियर (मध्यप्रदेश) का प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम अपने दीपक संग्रह के लिए प्रसिद्ध है। महात्मा बुद्ध की माता श्री मायादेवी के शयनकक्ष में रखा रहने वाला लकड़ी के खंभे पर गांधार शैली में बना हुआ दीपक भारत का सबसे बड़ा दीपक है। मिस्र देश के सम्राट क्लोरस के महल में एक इतना बड़ा दीपक था जिसका प्रकाश 200 मील तक जाता था। रोम के एक मकबरे (समाधि) से एक ऐसा दीपक प्राप्त हुआ, जो 2000 वर्षों से जल रहा था। मिस्र के पिरामिडों, रोम और ब्राजील के मकबरों, मैक्सिको की घाटियों, मैसापोटोमिया की पुरानी कब्रों के भीतर से जलते हुए दीपक प्राप्त हुए थे। कब्रों में मृत शरीरों के साथ जलते हुए दीपक रखे जाने के पीछे ये श्रद्धाभाव था कि मृत्यु के पश्चात आत्मा को अंधेरे में भटकना न पड़े। उस काल में ऐसे प्रतिभाशाली रासायनिक वैज्ञानिक मौजूद थे जिन्होंने बिना ऑक्सीजन, बिना तेल के जलने वाले दीपक बनाए, जो वर्षों तक जलते रहे। आधुनिक वैज्ञानिक ये मानते हैं कि सोडियम एंटिमनी, सोना, पारा, प्लेटिनम और गंधक मिलाकर वो रसायन तैयार किया जाता था। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों ने इस संबंध में कई प्रयोग किए। उन्होंने मिथाइल, अल्कोहल और फॉस्फोरस सल्फाइड का मिश्रण तैयार करके दीपक में भरा, पर दीपक 3 महीने से अधिक न जल सका। उनके समस्त प्रयोग निष्फल हुए। अब कुछ और आश्चर्यजनक दीपों की कहानियां सुनिए। 1804 में इटली के सिसली टापू के एक गांव में एक किसान के खेत में एक मकबरा मिला। मकबरे की छत और द्वार सीसा एवं अन्य धातुओं के मिश्रण से बंद किया हुआ था। जब छत छत तोड़ी गई तो सब ये देखकर स्तंभित रह गए कि मकबरा रोशन था। लाश के सिरहाने एक मर्तबान में रखा हुआ दीपक जल रहा था। कई लोग तो इसे भूतों की कारस्तानी समझकर भाग खड़े हुए। किसी ने साहस करके मर्तबान तोड़ डाला। मर्तबान के टूटते ही दीपक बुझ गया। मकबरों से मिले कागजों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि वह दीपक सैकड़ों वर्षों से जल रहा था। इतिहासकार विलियम कामडेल ने मैसोपोटोमिया के एक मकबरे में पाए जाने वाले प्रज्वलित दीपक संबंधी जानकारी देते हुए लिखा- उस दीपक में तेल के स्थान पर पिघला हुआ सोना भरा था। इससे ये निष्कर्ष निकला कि प्राचीनकाल के रसायन शास्त्री सोने को एक ऐसे मिश्रण में परिवर्तित करने की कला से परिचित थे, जो वर्षों तक दीपक को प्रज्वलित रख सकता था। इतिहासकार लायंस बैन ने अपनी पुस्तक मैक्सिको की संस्कृति में देवी के एक मंदिर में पाए जाने वाले दीपक के बारे में लिखा है- वह दीपक मिट्टी का बना हुआ था, जो आपस में जुड़े हुए दो बर्तनों में बंद था। एक बर्तन पर सोने की तो दूसरे पर चांदी की परत चढ़ी हुई थी। तेल के स्थान पर एक अपरिचित मिश्रण भरा हुआ था। उन बर्तनों पर लिखी हुई जानकारी से ज्ञात हुआ कि किसी राजा ने देवी आगस्टा को वो दीपक श्रद्धास्वरूप पेश किया था और जो वर्षों से रोशन था। सेंट आगस्टाइन ने सौंदर्य की देवी वीनस के मंदिर में जलने वाले दीपक का उल्लेख किया है, जो न जाने कितने हजार वर्षों से जल रहा था। संपूर्ण पूजा विधि कार्तिक कृष्ण अमावस्या के शुभ अवसर पर 31 नवंबर को देशभर में प्रकाशोत्सव पर्व दिवाली मनाई जा रही है। माता लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहे इसके लिए आज शाम शास्त्रों में लक्ष्मी माता के साथ गणेश और कुबेर की पूजा का विधान बताया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक कृष्ण अमावस्या तिथि को प्रदोष काल में स्थिर लग्न में दिवाली पूजन करने से अन्न-धन की प्राप्ति होती है। जो लोग तंत्र विद्या से देवी की पूजा करते हैं उन्हें आधी रात के समय निशीथ काल में पूजा करनी चाहिए। वैसे आज रात दिवाली पर निशीश काथ में सूर्य ग्रहण का सूतक लग जाएगा। ऐसे में गृहस्थों के लिए दीपावली पूजा की विधि जानें। कलावा, रोली, सिंदूर, एक नारियल, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, पांच सुपारी, लौंग, पान के पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल), फल, बताशे, मिठाईयां, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी, अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, रूई, आरती की थाली। कुशा, रक्त चंदनद, श्रीखंड चंदन।पूजन शुरू करने से पहले गणेश लक्ष्मी के विराजने के स्थान पर रंगोली बनाएं। जिस चौकी पर पूजन कर रहे हैं उसके चारों कोने पर एक-एक दीपक जलाएं। इसके बाद प्रतिमा स्थापित करने वाले स्थान पर कच्चे चावल रखें फिर गणेश और लक्ष्मी की प्रतिमा को विराजमान करें। इस दिन लक्ष्मी, गणेश के साथ कुबेर, सरस्वती एवं काली माता की पूजा का भी विधान है अगर इनकी मूर्ति हो तो उन्हें भी पूजन स्थल पर विराजमान करें। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु की पूजा के बिना देवी लक्ष्मी की पूजा अधूरी रहती है। इसलिए भगवान विष्ण के बायीं ओर रखकर देवी लक्ष्मी की पूजा करें। दीवाली पूजन विधि और मंत्र: दिवाली पूजन आरंभ करें पवित्री मंत्र सेः “ऊं अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥” इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन और पूजन सामग्री पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगाएं। आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं। इस मंत्र से आसन शुद्ध करें- ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ अब चंदन लगाएं। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए मंत्र बोलें चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठ सर्वदा। दीपावली पूजन के लिए संकल्प मंत्रः बिना संकल्प के पूजन पूर्ण नहीं होता इसलिए संकल्प करें। पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें- ऊं विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ऊं तत्सदद्य श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2070 तमेऽब्दे पिंगल नाम संवत्सरे दक्षिणायने हेमंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमावस तिथौ रविवासरे हस्त नक्षत्रे आयुष्मान योगे चतुष्पद करणादिसत्सुशुभे योग (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया– श्रुतिस्मृत्यो- क्तफलप्राप्तर्थं— निमित्त महागणपति नवग्रहप्रणव सहितं कुलदेवतानां पूजनसहितं स्थिर लक्ष्मी महालक्ष्मी देवी पूजन निमित्तं एतत्सर्वं शुभ-पूजोपचारविधि सम्पादयिष्ये। कलश की पूजा करेंः कलश पर मौली बांधकर ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश में सुपारी, दूर्वा, अक्षत, सिक्का रखें। नारियल पर वस्त्र लपेटकर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरुण देवता का कलश में आह्वान करें। ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांग सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥) दीपावली गणेश पूजा मंत्र विधिः नियमानुसार सबसे पहले गणेश जी की पूजा करें। हाथ में फूल लेकर गणेश जी का ध्यान करें। मंत्र बोलें- गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। आवाहन मंत्र- हाथ में अक्षत लेकर बोलें -ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।। अक्षत पात्र में अक्षत छोड़ें। पद्य, आर्घ्य, स्नान, आचमन मंत्र – एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:। इस मंत्र से चंदन लगाएं: इदम् रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसके बाद- इदम् श्रीखंड चंदनम् बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। अब सिन्दूर लगाएं “इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दूर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं। गणेश जी को लाल वस्त्र पहनाएं। इदं रक्त वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि। गणेश जी को प्रसाद चढ़ाएं: इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिठाई अर्पित करने के लिए मंत्र: – इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब आचमन कराएं। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी दें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम:। कलश पूजन के बाद कुबेर और इंद्र सहित सभी देवी देवताओं की पूजा गणेश पूजन की तरह करें। बस गणेश जी के स्थान पर संबंधित देवी-देवताओं के नाम लें। दीपावली लक्ष्मी पूजन विधि मंत्र सबसे पहले माता लक्ष्मी का ध्यान करेंः – ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी। गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।। लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। ज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः। नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।। अब हाथ में अक्षत लेकर बोलें “ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। देवी लक्ष्मी की अंग पूजा मंत्र एवं विधि बाएं हाथ में अक्षत लेकर दाएं हाथ से थोड़ा-थोड़ा अक्षत छोड़ते जाएं— ऊं चपलायै नम: पादौ पूजयामि ऊं चंचलायै नम: जानूं पूजयामि, ऊं कमलायै नम: कटि पूजयामि, ऊं कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि, ऊं जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि, ऊं विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि, ऊं कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि, ऊं कमल पत्राक्ष्य नम: नेत्रत्रयं पूजयामि, ऊं श्रियै नम: शिरं: पूजयामि। अष्टसिद्धि पूजन मंत्र और विधि अंग पूजन की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्र बोलें। ऊं अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, ऊं गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, ऊं प्राप्त्यै नम: ऊं प्राकाम्यै नम:, ऊं ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:। अष्टलक्ष्मी पूजन मंत्र और विधि अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें। ऊं आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, ऊं सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, ऊं लक्ष्म्यै नम:, ऊं सत्य लक्ष्म्यै नम:, ऊं भोगलक्ष्म्यै नम:, ऊं योग लक्ष्म्यै नम: प्रसाद अर्पित करने का मंत्र ” इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिठाई अर्पित करने के लिए मंत्र: “इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन कराएं। इदं आचमनयं ऊं महालक्ष्मियै नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ाएं:- इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:। लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करने का विधान है। व्यापारी लोग गल्ले की पूजा करें। पूजन के बाद क्षमा प्रार्थना और आरती करें।

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