2023-08-05 14:16:58
के. पी. मलिक
देश में जातिवाद राजनीतिक और सामाजिक परेशानियों का सबब है। तमाम राजनीतिक दलों के लोग सत्ता हथियाने के लिए इसका प्रयोग चुनावी हथियार के रूप में करते हैं। खासकर ग्रामीण परिवेश में यह राजनीतिक लोगों के लिए आम जनता और मतदाताओं को रिझाने या किसी अन्य प्रकार के सामाजिक निर्णय लेने में अहम भूमिका निभाता है। ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव में नेता अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए, इसे एक उपयुक्त उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं।
जाहिर है कि जातिवाद आम जनता के बीच में कोई भी निर्णय लेने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है। जिसका हमारे राजनेता भरपूर फायदा उठाते हैं। विदित है कि उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा के मद्देनजर तमाम राजनीतिक दलों ने पिछली सरकार की तमाम खामियों और अन्य चुनावी मुद्दों को छोड़कर सिर्फ और सिर्फ जातिवाद का खेल खेलते हुए जातिवादी रैलियां और सम्मेलन शुरू कर दिए हैं। जिससे जातिवाद रूपी इस हथियार को धार दी जा सके।
शहरीकरण केवल जातिवाद को तोड़ने का एक मिथक मात्र रह गया है! महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज को लेकर कई लोगों ने आलोचनाएं की है व आज भी यह कहकर कर रहे है कि गांव जातिवाद के पोषक होते है! महान विचारक ओशो ने भी इस इस बात को लेकर कई बार महात्मा गांधी को कठघरे में खड़ा किया था!
अंग्रेजी काल से लेकर अब तक सोशल जस्टिस के लिए लड़ने वाले लोगों ने यह उम्मीद पाल रखी थी कि ट्रेन जातिवाद को तोड़ने का माध्यम है। मगर गौर से देखा जाएं तो ट्रेनों में भी जातियों के हिसाब से व्यवस्था है। जो भारत की गरीबी और जाति आधारित सरंचना वाली है, उसके अनुरूप है। हमारे देश में जो जाति जितनी निम्न समझी जाती है वो उतनी ही गुरबत से लिपटी होती है और उसके हिस्से ट्रेनों में सामान्य श्रेणी भी बमुश्किल आ पाती है!
सामान्य तौर पर यह कह देना कि सीट जाति से थोड़े ही मिलती है, पर्याप्त नहीं है! यह बात भी सोशल जस्टिस के पैरोकारों द्वारा जोर-शोर से उठाई जाती है कि शहर जाति के बंधन को तोड़ते है! शहर व्यवसायिक केंद्र होते है और व्यापार की श्रेणी जाति की हैसियत से तय होती है! कोई ब्राह्मण-जैनी आपको बूट पोलिस करते नजर आयेगा? नही आयेगा। तो हरिजन या निम्न जाति से ताल्लुक रखने वाला किसी कपड़ा बाजार या ज्वैलरी के बाजार, व्यापार में नजर आयेगा? नही आयेगा।
बताते हैं कि आजादी के बाद सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति (एससी समुदाय) का मृत पशुओं को न उठाने को लेकर आंदोलन चला था। जिसको लेकर स्थापित भेदभावपूर्ण सामाजिक ताने-बाने में बिखराव हुआ! आपसी झगड़े हुए और बताते हैं कि कई दलितों ने तो पलायन भी कर लिया था! उम्मीद यह की गई थी देश की राजधानी दिल्ली जैसे बड़े शहर में जाकर धंधा करेंगे और शहरों में जातिगत भेदभाव का दंश भी नहीं झेलना पड़ेगा! मगर जब दिल्ली आए तो दया बस्ती, वाल्मीकि कॉलोनी, हरिजन बस्ती जैसी अलग जगह पर बसना पड़ा!
हालांकि बाद में दिल्ली सरकार ने मॉडर्न नाम देते हुए इनको जेजे कॉलोनी अर्थात झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी के रूप में स्थापित किया मगर इन कॉलोनियों में रहने वाले लोग दलित समुदाय के ही रहते है! तो निष्कर्ष यह निकलता है कि गांव से शहरों में आने के बाद भी जातिवाद ने निम्न जाति से ताल्लुक रखने वाले इन गरीबों का पीछा नहीं छोड़ा है। और जातिवाद का जो धन यह लोग गांव में झेल रहे थे आज शहर में भी उसी को इनको झेलना पड़ रहा है। जाहिर है कि जातिवाद से बचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है इसीलिए कहता हूं की ए जाती है जाती ही नहीं!
सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक प्रेम सिंह सियाग कहते हैं कि अमेरिका में रंगभेद के शिकार काले लोगों ने हजारों कुर्बानियां दी तब जाकर अपना हक हासिल कर पाएं है। भारत की निम्न कही जाने वाली जातियों के लोग इस उम्मीद में बैठे है कि स्वघोषित उच्च लोग दया करके हमे बराबरी का दर्जा दे देंगे! पांच हजार साल में दया नहीं आई और अब एकदम भेदभाव के दर्द को देखकर इनकी अश्रुधारा छूट जायेगी, उम्मीद करना बेमानी है! राजस्थान का कालबेलिया समाज अपनी कलाओं के माध्यम से पूरी दुनियां में राजस्थानी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करता है, या यूं कहूँ की दुनियां भर में राजस्थानी संस्कृति के इतराने की बुनियाद कालबेलिया समाज है।
मगर राजस्थान की सामाजिक सरंचना में इस समाज को कितना सम्मान है। वो तस्वीरों से समझा जा सकता है। विश्व प्रसिद्ध मेला केंद्र पुष्कर में इस समाज के बच्चों ने स्कूल में भेदभाव के इतने ताने सुने कि परेशान होकर इस समाज के लोगों को अपने अलग स्कूल खोलने पड़े। इन कालबेलिया समाज के स्वाभिमानी लोगों को मैं सलाम करता हूँ और राजस्थान के भेदभावपूर्ण सामाजिक ताने-बाने पर मैं बेबस, लाचार व शर्मिंदा हूँ।
देश के महानगरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई की पॉश कॉलोनियों में बड़े-बड़े बंगलों के आगे निम्न कही जाने वाली जातियों के सर नाम वाले शिलापट्ट नजर नहीं आएंगे! पश्चिमी बंगाल में धर्म-जाति से परे होने का दावा करने वाले कम्युनिस्टों की लगातार 35 साल सरकार रही! बंगाल में कुल 23 फ़ीसदी आबादी दलित समुदाय की है और कोलकाता में मात्र 6 फ़ीसदी दलित समुदाय के लोग रहते है और वो भी अलग बस्तियों में! करीबन 60 फ़ीसदी से ज्यादा बस्तियों में तो एक भी दलित का मकान नहीं मिलेगा और अगर किसी ने ले भी लिया तो पृथकत्व (आइसोलेशन) का शिकार है!
यही नहीं महात्मा गांधी के गुजरात की तस्वीर बाकी देश के राज्यों से दलित समुदाय के प्रति भेदभाव की भयानक तस्वीर पेश करती है! गुजरात के शहरों की करीबन 80 फ़ीसदी कॉलोनियां दलित समुदाय विहीन है!बल्कि गुजरात को लेकर देशभर के कुछ लोगों में यह धारणा भी है कि यहां हिंदुओं व मुसलमानों की अलग बस्तियां होती है। मगर इस तरफ ध्यान देने से लोग कतराते है कि हिंदुओं की बस्तियों की क्या सरंचना है!
हिंदुस्तान के लोग दुनिया के जिन देशों में गए है वो वहां भी जातिवाद को साथ लेकर गए। अमेरिकन ब्राह्मण महासभा, ब्रिटिश जाट महासभा, ऑस्ट्रेलियन राजपूत महासभा या दलित महासभाओं अथवा संगठनों के नाम अक्सर चर्चाओं में आते-रहते है! यह कहना कि गांव जातिवाद के पोषक है या शहर जातिवाद तोड़ने की मशीनें हैं अथवा अज्ञानता के कारण जातिवाद है और इसका उपचार मात्र शिक्षा है, यह सरासर झूठ है! इनके ऊपर लेख लिखकर हम अपने आप को बुद्धिजीवी बनने की कोशिश कर सकते हैं अथवा प्रवचन देकर विचारक बनकर अखबार बेच सकते है। मगर जातिवाद को नहीं मिटा सकते!
मेरा विचार है कि उच्चता व निम्नता मानसिक अवस्था होती है। पहले जाहिर तौर पर बलपूर्वक निम्नता के दायरे में बांधा गया था। मगर आजादी के बाद शुद्ध रूप से यह मानसिक अवस्था रह गया है! जब तक खुद के स्वाभिमान को इंसान खुद अव्वल दर्जे पर स्थापित नहीं कर देता, तब तक कोई कानून, किसी ताकतवर की दया या सोशल जस्टिस के लिए लड़ रहा इंसान इससे मुक्ति नहीं दिला सकता! इंसानों के बीच भेदभाव की प्रथा तब तक खत्म नहीं की जा सकती जब तक निम्न कहे जाने वाला वर्ग स्वघोषित उच्च वर्ग को सामने खड़ा होकर चुनौती नहीं दे देगा!
जिंदगी बस यूँ ही खत्म होती रही,
जरुरतें सुलगी, ख्वाहिशें धुँआ होती रहीं...!
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं)