2023-11-18 16:10:41
राजेश बैरागी
किसी पुलिस कार्यालय का उद्घाटन हो रहा था।आला अधिकारी से लेकर कांस्टेबल तक वहां थे। ऐसे अवसरों पर पत्रकार न हों, ऐसा कैसे हो सकता है। पत्रकारों और पंडिताई करने वाले ब्राह्मणों में गजब की समानता है। जैसे जन्म से मरण तक कोई कार्य पुरोहित के अभाव में संपन्न नहीं हो सकता है, वैसे ही सभी शुभ अशुभ अवसरों पर पत्रकारों की उपस्थिति अनिवार्य हो गई है। माना जाता है कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए पत्रकारों को चौथे पाए की भांति हर जगह खड़े रहना चाहिए।मेरा कभी किसी वेश्यालय में जाने का मौका नहीं लगा। परंतु मैंने सुना है कि वहां आने वाले हर हारे थके निराश या अय्याश ग्राहक को देखकर वेश्या यही कहती है,-मैंने अपने जीवन में तेरे जैसा मर्द नहीं देखा। उस ग्राहक को वेश्या के ऐसा कहने पर कैसा लगता होगा?हो सकता है उसे अपने मर्द होने का भ्रम हो जाता हो।हो सकता है कि उसे वेश्या झूठी मक्कार दिखाई देने लगती हो।हो सकता है कि उसे वेश्या के धंधे की यह विवशता समझ में आती हो। आज राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस से अगला दिन था। पत्रकारिता के लिए यह कोई विशेष दिन नहीं था। पुलिस कार्यालय का उद्घाटन हो गया तो लोग अपने अपने गुटों में बंटकर नाश्ते का आनंद लेने लगे।
अधिकतर पत्रकारों ने आज ही थाने से रुखसत होने वाले थानाध्यक्ष को घेर लिया और लगे उनकी प्रशंसा करने। एक ने तो यहां तक कहा कि आप थे इसलिए हमारी कलम चुप थी।नये वाले की खैर नहीं। मैं वहीं विचारमग्न हो गया। क्या वास्तव में नये वाले को पत्रकारों का साथ नहीं मिलेगा? क्या जाने वाले के साथ पत्रकारों की कोई खास हमदर्दी थी कि कलम खामोश रही?या आने वाले को भी ऐसी ही एकनिष्ठा दिखाकर अपना बनाया जाएगा? मैं विचारों में खोया हुआ एक और सरकारी कार्यालय में पहुंच गया। वहां एक सज्जन मुझे बताने लगे कि वे किसी साजिश का शिकार होकर पुलिस के जाल में फंस गए थे।तब उन्होंने कई पत्रकारों को आपबीती सुनाई थी परंतु किसी ने भी उनके मामले में दिलचस्पी नहीं दिखाई जबकि उनके पास अपनी बेगुनाही के सुबूत थे। मेरे पास उनकी संतुष्टि के लिए कहने को कुछ नहीं था।(नेकदृष्टि)